धर्म चला गया। घर जाकर विदुरानी से विदुर जी बोले- देवी हम ने नौकरी छोड़ दी, अब हम तीर्थों में चलकर के भजन करेंगे। पर कष्ट का विषय तो यह है कि आज ही तो कन्हैया शांति का प्रस्ताव लेकर आ रहे हैं और आज ही हमने घर त्याग दिया। कम से कम एक बार कन्हैया से भेंट हो जाती तो बड़ा आनंद होता।
पर मैंने सोच लिया, कोई जरूरी नहीं है कि मैं सभा में जाकर कन्हैया से मिलूं। मैं उन के दर्शन आज पथ पर ही कर लूंगा। तुम भी मेरे साथ चलना। विदुरानी बोली- महाराज! मैं तो बहुत प्रसन्न हूं, मैं अवश्य आपके साथ कन्हैया के दर्शन करने चलूंगी। उधर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बुलाकर कहा सुनो बेटा, यह तुमने बहुत गलत काम कर दिया। तुमने विदुर को इस प्रकार से अपमानित कर जो अपराध किया वह सही नहीं था। खैर जो होना था सो हुआ, परंतु आज कन्हैया आ रहे हैं हमारे यहां, उनके स्वागत में कुछ भी कमी मत रखना। ऐसा स्वागत करना कि वह मुग्ध हो जाएं।
दुर्योधन बोला- पिताजी आप भी किस की बातों में आ जाते हैं। आप जानते हो कि यह कृष्ण हमेशा पांडवों का पक्ष लेता है, उसके स्वागत से भला क्या मिलेगा हमें। तब धृतराष्ट्र ने राजनीतिक ढंग से समझाया। बेटा दुर्योधन! राजनीति का यही कर्तव्य है कि मौके पर चौका मारो। अब कल को यदि युद्ध शुरू हुआ तो आज जो तुम कन्हैया का स्वागत करोगे वह कल युद्ध में बड़ा काम आएगा। तुमने अच्छा स्वागत कन्हैया का किया और वह तुम्हारे स्वागत से प्रसन्न हो गए तो कल तुम कन्हैया से संग्राम के लिए सहयोग मांग सकते हो, कि कन्हैया हमें कुछ सहयोग दो, तो कुछ ना कुछ सहयोग कन्हैया तुम्हें अवश्य देंगे। क्योंकि वह भी तो तुम्हारे सगे संबंधी लगते हैं।
कन्हैया की पत्नी जांबवती के पुत्र सांब का विवाह दुर्योधन की बेटी लक्ष्मणा के साथ हुआ था। इसलिए दुर्योधन और श्री कृष्ण सगे-संबंधी भी हैं। तो जो राजनेता होते हैं, वह ऐसा ही करते हैं। मौके की तलाश में रहते हैं, मौका मिले तो तमाम रिश्तेदार ढूंढेंगे। भाई सुना चुनाव होने वाले हैं, देखो! रिश्तेदार, नातेदार कौन-कौन हैं जीतने के बाद सगे लोग आ जाएं तो ना पहचाने। अरे बेटा तेरा बिगड़ता क्या है? जरा सा स्वागत ही तो करना है। दुर्योधन बोला पिताजी अगर ऐसी बात है, तो आप चिंता मत करो। ऐसा ही होगा, की उस कृष्ण को भी याद रहेगा।
अब ऐसा साज सज्जा कराया दुर्योधन ने राजभवन का, कि उसकी शोभा का कहना ही क्या; थाल में हीरे रत्न लिए सुंदर स्त्रियां, प्रभु की सेवा में खड़ी हैं। पूरा हस्तिनापुर सज गया, प्रभु के स्वागत में। जैसे ही भगवान द्वारिकाधीश प्रविष्ट हुए अपने रथ के साथ, तब सभी हस्तिनापुर वासी दौड़ पड़े गोविंद के दर्शन के लिए।
।।बोल द्वारिकाधीश की जय।।
फूलों की दृष्टि होने लगी, जगह-जगह पर राजा-महाराजा स्वागत के लिए दरबार बनाए खड़े हैं। माल्यार्पण कर भगवान का अभिनंदन कर रहे हैं। सारा राजपथ जय-जयकार से गूंज उठा। इधर विदुर जी के कान में आवाज पड़ी, विदुर-विदुरानी भागे गोविंद का दर्शन करने। लेकिन तब तक राजपद को चारों तरफ से घेर लिया लोगों ने। हजारों की तादाद में जनता भगवान के रथ को घेरे हुए थी। कोई माल्यार्पण कर रहा है, तो कोई पुष्पों की वृष्टि कर रहा है। विदुर जी बोले- देवी हमें देर हो गई, अब दर्शन कैसे मिलेंगे? अच्छा चलो हम राजपथ के टीले पर खड़े हो जाते हैं। वहीं रथ से निकलेगा, दर्शन कर लेंगे। विदुर-विदुरानी जाकर राजपथ के टीले पर खड़े हो गए, कि यहां से सवारी निकले और हम दर्शन करें।
जय जयकारों से गूंजता हुआ वह राजपथ, आगे चला आ रहा था। जैसे ही राजपथ में विदुर जी के सामने से निकला, बोले देखो-देखो ठीक से दर्शन तो हो रहे हैं ना तुम्हें। कितनी सुंदर बांकी-झांकी है प्रभु की। झांकी का दर्शन विदुर-विदुरानी कर आनंद में निमग्न हो रहे हैं, गदगद हो गए। पुष्प की वृष्टि दूर से ही कर रहे हैं। अचानक सभी का स्वागत स्वीकार करते करते गोविंद की दृष्टि विदुर-विदुरानी पर पड़ गई। जहां कन्हैया की आंखें चार विदुरजी से हुई होठों पर मुस्कान खिल गई, मुस्करा कर इशारे में ही पूछने लगे चाचा जी, कैसे हो? विदुर जी के तो कान खड़े हो गए! क्या मुझसे उन्होंने कुछ कहा। फिर अपने मन को समझाया न-ना इतने राजा-महाराजा उनके आगे पीछे, फुर्सत नहीं उन्हें बात करने की, मुझ दास दासीपुत्र को क्या पहचानेंगे। पर भगवान ने पुनः संकेत दिया, अरे चाचा जी कैसे हो? विदुर जी की धड़कन तेज हो गई। देवी तुम देख रही हो, लगता है; प्रभु ने हमें पहचान लिया, हमारी कुशलता पूछ रहे हैं।
इतना आनंद महाराज आंखों में प्रेम के अश्रु छलक पड़े बार-बार दूर से प्रणाम कर, अपनी कुशलता का संकेत दे रहे हैं। विदुर जी बोले- देवी देख रही हो, इतनी भीड़ में भगवान ने हम भक्तों को देख लिया गोविंद ने। जब विदुरानी पर दृष्टि डाली… ओ.. हो चाची जी! आप भी आई हो। विदुरानी जी को संकेत दिया, जब कुशलता का तो विदुरानी जी तो उछल पड़ी। अरे महाराज! केवल आपको ही नहीं पहचाना, मुझे भी देख लिया, मेरी भी कुशलता पूछ रहे हैं। इतने आनंद मग्न हो रहे हैं दोनों दंपति की भगवान का रथ तो आगे बढ़ गया। पर दोनों का मन मानो रथ में ही चला गया।
विदुर जी बोले- देवी! अब तो कुछ भी हो, तुम घर जाओ, मैं तो आज कन्हैया का भाषण सुनने जाऊंगा। देखें दुर्योधन को आज क्या समझाते हैं। भगवान तो सभी शास्त्रों के वेत्ता हैं। बढ़िया-बढ़िया उपदेश देंगे। मैं भी तो सुनूं क्या समझाते हैं। दुर्योधन इनकी बात मानेगा भी कि नहीं, जो भी चर्चा होगी, मैं तुम्हें घर आकर सब बता दूंगा। तुम घर जाओ, ठीक है महाराज! अब विदुरानी जी, मोहन की छवि मन में बसा कर चली गई और विदुरजी हजारों जनता के पीछे-पीछे चल पड़े। जब भगवान ने प्रवेश किया दुर्योधन की सभा में, समस्त कौरवों ने खड़े होकर भगवान का अभिनंदन किया। श्रेष्ठ सिंहासन पर भगवान को विराजमान किया। विविध भांति के माल्यार्पण कर भगवान का पूजन किया गया। तब राजनीतिक चर्चाएं प्रारंभ हुई। विविध प्रकार की चर्चाएं संपन्न होने के बाद, भगवान ने अपना निर्णय सुनाया।
देखो दुर्योधन! मैं नहीं चाहता कि तुम भाइयों में किसी भी प्रकार का संग्राम हो और आधा राज्य ना सही कम से कम 5 गांव उन पांच भाइयों के लिए तो दे ही सकते हो, इसमें तुम्हें कौन सी आपत्ति है। मेरे पांडव तो बस इतने में ही संतुष्ट हो जाएंगे, मैं तुम्हें वचन देता हूं।
दुर्योधन ने कहा- कन्हैया! तुम 5 गांव की बात करते हो; मैं उन्हें सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दे सकता इन पांडवों को, बिना युद्ध किए। दुर्योधन! अपनी जबान को लगाम दो; तुम मुझे युद्ध की धमकी दे रहे हो। युद्ध के परिणाम पर तुमने विचार किया है? कितनी माताओं का सिंदूर उजड़ेगा, कितनी माताओं की गोद सूनी होगी। इस पर कभी विचार किया है, तुमने। यह तुम्हारे घर का संग्राम नहीं पूरे भारतवर्ष का के वीर योद्धाओं के बीच का संग्राम होगा।
इसलिए जरा सोच विचार कर निर्णय लो। इधर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन का हाथ दबाया, इशारे में कहा- कितना समझाया था, कि नाराज मत करना। दुर्योधन ने तुरंत अपनी भाषा बदल दी; अरे कन्हैया! तुम तो नाराज हो गए। भई नाराज होने की क्या बात है, राजनीतिक फैसले कोई एक दिन में ही तो पूरे नहीं हो जाते। अच्छा तो आप आए हो चर्चा हो ही रही है, कोई ना कोई निर्णय तो अवश्य निकलेगा। और आप तो आते ही राजनीति की चर्चा लेकर बैठ गए। देखो महाराज! हमारा नाता केवल राजनीति का ही नहीं है, आप हमारे अपने ही सगे संबंधी हो। आप के आने की खबर मैंने जैसे ही सुना तो आनंद में विभोर हो गया। आपके लिए 56 प्रकार के व्यंजन तो बनवा कर बैठा हूं, कि हमारे समधी जी को न जाने क्या पसंद है। पहली बार हम आप, साथ बैठकर भोजन करेंगे, फिर विश्राम के बाद चर्चाएं आगे बढ़ेंगी।
यह सुन कन्हैया मुस्कराए! दुर्योधन तुम्हें पता होना चाहिए कि भोजन हमेशा 2 स्थितियों में किया जाता है। कौन-कौन सी या तो भोजन प्रेम में होता है, और या भूख में। दुर्योधन तेरे यहां इन दोनों की कमी है। ना तो मेरे पेट में भूख है और ना तेरे ह्रदय में प्रेम है। तो फिर भोजन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। और सुनो तुम मुझे क्या भोजन खिलाओगे? मुझे तो पहले ही भोजन का निमंत्रण मिल गया है। रास्ते में मुझे विदुर चाचा मिले थे; सभा के कोने में बैठे विदुर जी सब सुन रहे थे, जब अपना नाम सुना तो चौक पड़े। दुर्योधन ने कहा- फिर?..
“फिर क्या” मिलते ही हमारी उनसे राम-राम हुई। उन्होंने कहा- कन्हैया भोजन तो हमारे यहां होंगे। इसलिए पहले वचन उनको दिया है। इसलिए भोजन भी वही करूंगा। शुकदेव जी बोले- परीक्षित! इस प्रकार भगवान, दुर्योधन के 56 व्यंजनों को छोड़कर महाराज विदुर जी के पास पहुंचे। विदुर जी भगवान को अपने यहां देखकर विभोर हो गए। उनका स्वागत किया, उत्तम आसन दिया। भगवान बोले- चाचा जी आज तो हम आपके यहां ही भोजन करेंगे और विदुर जी ने उन्हें प्रेम से भोजन कराया। इस प्रकार भगवान विदुर जी की कुटिया में पदार्पण कर सिद्ध कर दिया, कि भगवान को पदार्थों की भूख नहीं प्रेम की भूख होती है। भगवान इस चरित्र से यह संकेत देते हैं। की-
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
पत्र हो, पुष्प हो, फल हो या जल हो पदार्थ कुछ भी हो। पर शर्त यह है कि मुझे प्रेम भक्ति पूर्वक जो प्रदान करता है, मैं उसे स्वीकार करता हूं। और अभिमान से जो भगवान के लिए छप्पन भोग भी लगाओ तो अस्वीकार करता है।
क्या दिया उसका कोई महत्व नहीं, कैसे दिया यह महत्व रखता है। महाभारत के संग्राम की बात जब पुष्ट हो गई, तो महाराज विदुर तीर्थ यात्रा करने निकल गए। जब तीर्थ यात्रा करके लौटे, तो रास्ते में उद्धव जी से भेंट हुई। यहां पर उद्धव जी ने महाभारत की जानकारी दी, और बोले- महाभारत समाप्त भी हो गया, पांडव लोग जीत भी गए और भगवान भी अपने कुटुम्ब को समेटकर स्वधाम चले गए। यह सुनकर विदुरजी के आंखों में आंसू आ गए। फिर खुद को संभालते हुए उद्धव से बोले- मैं कितना अभागा हूं कि मैं तीर्थों में घूमता रहा और गोविंद ने हमारा साथ छोड़ दिया। उद्धव जी! आप तो गोविंद के सानिध्य में थे क्या गोविंद ने मुझे जाते-जाते कुछ बोल कर गए हैं?.. यहां पर उद्धव जी ने कन्हैया की कई लीलाओं का वर्णन किया है। फिर अंत में कहा विदुर जी जब भगवान हमें अंतिम उपदेश दे रहे थे तब उस समय वहां पर “मैत्रेय जी” भी थे, कन्हैया ने तुम्हें जाते-जाते याद भी किया और मैत्रेय जी से बोले- मैत्रेय जी! मेरे परम भक्त विदुर जी जब आपके पास आए तो उन्हें आप यह उपदेश देना। यह सुनकर विदुरजी प्रफुल्लित हो गए। क्या जाते-जाते कन्हैया ने मुझे याद किया।
उद्धव जी बोले- विदुर जी महाराज मैत्रीय जी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं आप उन्ही के पास जाइए। विदुर जी के हृदय में हर्ष और शोक दोनों हो रहा था। उन्हें भगवान के वियोग का तो शोक था, पर जाते-जाते गोविंद ने याद किया इस बात का उन्हें हर्ष था। भगवान जाते-जाते जिस भक्त को याद करें, वह कितना प्रिय ना रहा होगा। अब विदुर जी सीधे मैत्रेय जी की कुटिया में पहुंचे। मैत्रेय जी ने उनका स्वागत किया और यही से प्रारंभ होता है।
“विदुर मैत्रीय संवाद”
अति उत्तम कार्य।इसके आगे के भाग भी लिखो। जय श्री राधे।
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