रविवार, 24 दिसंबर 2017

चतुर्श्लोकी भागवत 28

तो जिस परमात्मा के एक रोम में करोड़ों ब्रह्मांड लुढ़कते रहते हैं। उसमें हम क्या कहीं दिखाई देंगे? फिर अभिमान किस बात का। यह भागवत का उपदेश भगवान ने सबसे पहले ब्रह्मा को दिया था। वही प्रसंग चल रहा है।

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत सदसत परम्। पश्चादहं यदेतच्च योवशिष्येत सोस्म्यहम्।।१।।

ऋतेर्थं यत प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि। तद्विद्यादात्मनो मायां यथा भासो यथा तमः।।२।।

यथा महान्ति भूतानी भूतेषूच्चावचेष्वनु। प्रविष्टान्य प्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।।३।।

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्व जिज्ञासुनात्मनः। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत स्यात सर्वत्र सर्वदा।।४।।

सारी दुनिया में सबसे पहले केवल मैं था। दुनिया के बनने के बाद नाम रूप सब बदल गए। पर सब में मैं हूँ, और दुनिया के समाप्त होने पर जो बचता है, वह भी मैं ही रहता हूं।

हमारे पास एक सोने की बिस्कुट है। एक दिन पहुंचे सोनी जी के पास तो हमने उससे अंगूठी बनवाई, बढ़िया हार बनवाई, एक चैन भी बनवाली और मंगलसूत्र भी बनवा लिया। अब एक दिन पता नहीं क्यों मुझे बहुत गुस्सा आया, मैंने सबको लिया एक ओखली में डालकर धनकुटना से कूट दिया और कूटता गया, कूटता गया, कूटता गया। अब उसमें तो अंगूठी हार बगैर सब नष्ट हो गई। अब बचा क्या? क्या बचा?... सिर्फ सोना! उस बिस्कुट में जो था वह भी सोना था। हार, अंगूठी में जो था वह भी सोना ही था। सिर्फ नाम अलग-अलग थे। अब कूटने के बाद जो बचा है, वह भी सोना ही है।
           ।।बोलो जय श्री कृष्णा।।
मिट्टी के बड़े-बड़े हाथी बनाए, घोड़े बनाए, कुत्ते-बिल्ली सब बनाए और बाद में सबको तोड़ मरोड़ के पीस दिया। तो सिर्फ बचा क्या? मिट्टी! खिलौने बनाने से पहले वह मिट्टी थी। बनाने के बाद नाम रूप बदला परंतु वह भी मिट्टी ही है, और नष्ट होने के बाद भी वह मिट्टी ही रहेगी। इसलिए मैं ही सब में था, मैं ही सब में हूं; और मैं ही सब में रहूंगा।

अब दूसरी बात- भगवान कहते हैं! जो चीज दुनिया में नहीं है फिर भी हम जबरदस्ती मानते हैं। हम किसी मित्र को कहते हैं कि अगर तुम मेरे घर नहीं आए तो मेरी आत्मा को कष्ट पहुंचेगा। मेरी आत्मा दुखीगी। तुम्हें तो आना ही होगा। अब एक जगह बहुत भीड़ है तो किसी ने पूछा अरे क्या हुआ? बोली दसवीं की परीक्षा दी थी फेल हो गया तो फांसी लगाकर आत्महत्या कर लिया।

महाराज! आत्मा की हत्या तो कभी होती ही नहीं, आत्मा न जन्म लेती है ना उसकी कभी मृत्यु होती है। तो फिर मित्र घर नहीं आया तो आत्मा को कष्ट हो गया। परीक्षा में पास नहीं हुआ तो आत्महत्या कर लिया। जो चीज नहीं है फिर भी हम लोग उसको जबरदस्ती पालते हैं, और जो चीज है; नित्य, शुद्ध चिन्मय, शाश्वत, अविनाशी उसके होने पर भी हम उसे नहीं मानते। यही माया का एक रूप है।

अब तीसरी बात- वर्णन करते हैं जैसे पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश यह सब में व्याप्त है और सब से अलग भी है। अलग रहते हुए भी सब में व्याप्त है व्याप्त होकर भी सब में है। इसी प्रकार ब्रह्मा जी! मैं सब में हूं और सब से पृथक भी हूं। यह सुनकर ब्रह्माजी के मन में बड़ी प्रसन्नता की अनुभूति हुई।

चौथी बात- आत्मा तत्व के जिज्ञासु को बस यही समझना पर्याप्त है। की अन्वय व्यतिरेक से जो सर्वथा परे है। सर्वदा विद्यमान है, उसी को ब्रह्म कहते हैं। भगवान बोले- ब्रह्मा जी! यह भागवत धर्म है! एक बात कहूं भागवत का मतलब क्या होता है? जो भगवान का है, वह भागवत है। भगवान के सामने जो “का” लग गया, बस वही भागवत है। भगवान का जो भक्त है वह भागवत। भगवान का जो मंदिर है वह भागवत। भगवान का जो उपदेश है वह भागवत। भगवान का जो प्रेमी है वह भागवत। जिसके सामने का लगाया बस वही भागवत है, बात खत्म। कभी-कभी प्रश्न उठते हैं। भगवान किस को मिलते हैं? बोले जो 5 बार नहाते हैं उसी को मिलते होंगे।

बोले नहीं। जिन भीलों को श्रीराम जी ने गले से लगाया वह जाड़े के दिनों में नहाते ही नहीं थे। इसका मतलब 5 बार नहाने बालों को ही भगवान मिलें यह जरूरी नहीं है। बोले तो फिर उम्र तो देखते ही होंगे? बाल सफेद होना जरूरी होगा, 80 के जब पहुंचेंगे तब भगवान मिलेंगे?.. बोले लंबी उम्र वालों को मिलते होंगे। बोले नहीं भला उस नन्हे से ध्रुव की क्या उम्र थी। उस 5-7 वर्ष के बच्चे ने भगवान को पा लिया। उम्र नहीं तो डिग्री जरूर देखते होंगे या फिर सिर्फ मनुष्य को ही दर्शन मिलते होंगे?  अच्छा तो फिर गजराज कौन था? और वह कितना पढ़ा था?.. उसे भी भगवान मिले। तो फिर कुछ तो जरूर देखते होंगे। ठीक है ब्राह्मण नहीं तो क्षत्रीय या वैश्य तो कम से कम होना ही चाहिए। ऊंचे बिरादरी में जन्म लेने वाले को ही भगवान नहीं मिलते हैं। ऐसी बात भी नहीं है; विदुर जी की जाति क्या थी? शबरी की जाति क्या थी? महात्मा विदुर तो दासी के पुत्र थे, लेकिन विदुर के घर भी गोविंद पधारे; बड़ा प्रेम दिया गोविंद ने विदुर को।

धृतराष्ट्र के पास बाहर की आंखें नहीं थी और अंदर की आंखों को शकुनि ने काट लिया था। वृंदावन में एक कहावत है कि- दीवार बिगारे आरो।। और घर बिगारे सारो।। विदुर जी को बड़ा दुख हुआ; जब उन्हें पता चला की लाक्षा भवन में पांडवों को जलाने का षड्यंत्र हो रहा है। महात्मा विदुर पहुंच गए धृतराष्ट्र के पास में।

महाराज! अन्याय की बेल में कभी अमृत का फल नहीं आता। आपको अन्याय से बचना चाहिए और नीति यह कहती है, कि एक नगर को त्याग देने से यदि राष्ट्र की रक्षा होती है तो उस नगर का त्याग कर देना चाहिए। एक घर को त्यागने से यदि गांव की सुरक्षा होती है तो उस घर का त्याग कर देना चाहिए। खानदान में किसी एक व्यक्ति से असुरक्षा यदि होती है तो उस व्यक्ति को त्याग देना चाहिए।

क्षमा करना आप के कुल में दुर्योधन कलंक बन कर के आया है। मेरा आपसे निवेदन है महाराज ऐसा होने से रोको पांडव कमजोर नहीं है। पर वह धर्म पर चलने वाले नीतिज्ञ हैं। धृतराष्ट्र ने कहा- विदुर मैं तुम्हारी बात मानता हूं; पर मेरा पुत्र दुर्योधन सुनने को तैयार नहीं है। मैं क्या करूं; मैं क्या कर सकता हूं? हो सके तो तुम ही उसे समझाओ विदुर जी ने कहा- महाराज क्षमा करें! आपको समझाना मेरा धर्म था। मैं उसे नहीं समझा सकता क्योंकि उसकी मंडली दूसरी है, जो उसे परामर्श देती है। विदुर जी महाराज इतना कह ही रहे थे कि तभी दुर्योधन के कान में यह शब्द पड़ गए।

सुन लिया उसने और बोला- ऐ दासी पुत्र; तेरी इतनी हिम्मत, कि मुझे राजमहल से निकालने का षड्यंत्र रचे; ऐसी बात तू सोच भी कैसे सकता है। अरे तू मुझे क्या निकालेगा मैं ही तुझे यहां से निकालता हूं। चल भाग यहां से, किसने बुलाया तुझे यहां परामर्श देने के लिए। शुकदेव जी कहते हैं-

स्वयं धनुरद्वारि निधाय मायां
       गत व्यथो यादुरु मान्यान:।।
             स निर्गतः कौरवपुण्यलब्द्धो
                  गजाह्वयात्तीर्थपदः पदानि।।
परीक्षित! विदुर जी महाराज ने उसी क्षण धनुष बाण देहरी पर रख दिए। अच्छा धनुष बाण इसलिए रख दिए, कि तुझे छोड़कर जा रहा हूं तो यह मत सोचना कि पांडवों से जा कर मिल जाऊंगा। मैंने आज से धनुष बाण त्याग दिए, हमेशा हमेशा के लिए। परंतु अब तक मैं इसलिए नहीं निकल पाया था, कि दुनिया यह न कहे कि कितना मतलबी है विदुर, कि जब महाभारत युद्ध के घोर काले बादल मड़राने लगे, तो देखो विदुर कैसे महल छोड़ तुरत भाग गया। पर अब मुझे कोई दोष नहीं देगा, क्योंकि तू ही मुझे भगा रहा है। मैं तो तुम्हें छोड़ने को पहले से ही तैयार बैठा था। शुकदेव जी कहते हैं- राजन! यह विदुरजी नहीं जा रहे।

तो स निर्गतः कौरवपुण्यलब्द्धो  मानो उन कौरवों का पुण्य ही उनका परित्याग कर के जा रहा है। धर्मो रक्षति रक्षित: जो धर्म की रक्षा करेगा धर्म उसकी रक्षा करेगा और विदुर जी तो साक्षात धर्म के अवतार हैं। पांडवों में युधिष्ठिर धर्म के अवतार हैं और कौरवों में विदुर जी।

धर्म तो दोनों ही पक्षों में है परंतु फर्क इतना है कि हर स्थिति में युधिष्ठिर जी के आज्ञा का पालन किया पांडवों ने, धर्म का आदर किया। इसलिए धर्म ने भी पांडवों की रक्षा की। विदुर के रूप में कौरवों में धर्म था तो अवश्य, पर आज उस धर्म ने उनका परित्याग कर दिया।

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