द्रोपती ने कहा क्षमा कीजिए बाबा! मैंने अपने आप को बहुत रोका, पर संभाल नहीं पाई। आप तो को सायद याद नहीं होगा, पर मैं उस घटना को आज तक भुला नहीं पाई। भरे दरबार में दुर्योधन ने दुशासन को आदेश दिया मेरे वस्त्र उतारने को मैं अवला क्या करती, पर उस दरबार में मुझे आपसे ज्यादा बलशाली कोई नजर नहीं आ रहा था, और आप चाहते तो उसी समय दुर्योधन का मुख बंद कर सकते थे। मैं आपसे सहायता की भीख मांगती रही और आपने अपना मस्तक नीचे झुका लिया था।
और आज आप यहां पर धर्म की शिक्षा का पाठ बता रहे हैं। आप ही बताइए कि आपके सामने एक अगला का वस्त्र खींचा जा रहा था यह पाप आपसे कैसे देखा गया? उस समय आपका धर्म कहां था?
हां पुत्री तुम ठीक कहती हो! मैं भी उस पाप का भागी हूं, पर उस समय मैं बेबस था। क्योंकि मैं दुर्योधन का दूषित अनाज खा रहा था और बात भी सही है।
हमारे यहां तो कहावत है-
जैसो खावे अन्न। वैसो होवे मन्न।।
आज तो लोग क्या-क्या खा रहे हैं और यह तो पूछो ही नहीं कि किस स्थिति में खाते हैं।
हमारी दिनचर्या क्या है?
हमारा रहन सहन क्या है?
हमारा खान पान क्या है?
यह एक बहुत महत्वपूर्ण बात है इसके प्रतिकूल आचरण करने से व्यक्ति का व्यक्तित्व डगमगा जाता है। इसी से उसका तेज, उसी से उसका आयु, उसी से उसकी सोच तुच्छ हो जाती है। हमारा खान-पान अच्छा हो ना चाहिए। हमारा साथ संग अच्छा होना चाहिए। हमारा रहन सहन भी अच्छा होना चाहिए। उसी से हमारी यश कीर्ति आयु बढ़ती है।
हे पुत्री! मैं उसी के अनाज से बने रक्त को बहा रहा हूं। अब दुर्योधन के अनाज से बना रक्त बह गया है, और मेरा मन भी शुद्ध हो गया है। मुझसे हुए उस पाप के लिए मुझे क्षमा करना। इस प्रकार उपदेश देकर पितामह भीष्म ने निमग्न होकर भगवान को निहारते रहे और अपने पंचभौतिक शरीर को त्याग दिया। आकाश से सुमन वृष्टि देवताओं ने की, महात्माओं में जय जयकार गूंज उठा।
।।बोल भक्तवत्सल भगवान की जय।।
सूत जी बोले- ऋषियो! स्वयं भगवान ने उत्तरा के गर्भ में प्रवेश किया और परीक्षित की रक्षा की, यह तो मैंने सुना ही दिया। जब परीक्षित का जन्म हुआ तो बड़े-बड़े विद्वान आए भविष्यवाणियां करने लगे, महाराज आपका पुत्र शिवी के भांति बड़ा दानवीर होगा। हरिश्चंद्र के समान सत्यनिष्ठ होगा। यह अर्जुन के समान योद्धा होगा। परंतु..? परंतु..।
परंतु क्या महाराज! आप सच-सच बोलिए! परंतु कहकर आप रुक क्यों गए।
तब महर्षि बोले! राजन-
तक्षकादात्मनो मृत्युं द्विजपुत्रो पसर्जितात।
प्रपत्स्यत उपश्रुत्य मुक्तसंगः पदं हरे:।।
महाराज इस बालक की मृत्यु तक्षक के काटने से होगी, यही थोड़ा सा दोष है। पांडव लोग यह सुनकर दु:खी हो गए, अरे महाराज! यह तो अकाल मृत्यु हुई। तो फिर मेरे पुत्र का उद्धार कैसे होगा?
तब ब्राह्मणों ने कहा- उसकी चिंता आप ना करो, तक्षक के काटने से मृत्यु अवश्य होगी, परंतु एक परमहंस का अनुग्रह इसके ऊपर ऐसा होगा, कि तक्षक के काटने पर भी इसकी सद्गति हो जाएगी। पांडवों को यह सुनकर के संतोष हुआ। ब्राह्मण लोग तो जाते-जाते नाम भी रख गए “विष्णुरात” भगवान विष्णु ने इसकी रक्षा की, इसलिए इसका नाम हम विष्णुरात रखते हैं। परंतु उस विष्णुरात बालक को जो भी गोद में लेता वह उसे टुकुर-टुकुर देखने लगता है, उसका मुख निहारने लगता है वह बालक जिसके गोद में जाता है। अपने नैनों से उसे निहारता रहता है। पांडवों ने कहा- न जाने यह किस में क्या ढूंढ रहा है, हर किसी के मुख को इस प्रकार से क्यों ताकता रहता है।
विद्वानों ने कहा- पारित इति इक्षित = “परीक्षित:” नाम ही रख दिया “परीक्षित” और इस प्रकार उस बालक की ख्याति परीक्षित नाम से हुई। परीक्षित का जात संस्कार कुलगुरु धौम्य, कृपाचार्य आदि विद्वानों से कराया गया। प्रजातीर्थ लग्न में ही ब्राह्मणों को गौ, भूमि आदि देकर संतुष्ट किया।
महाराज! यह दान अक्षय दान कहलाता है। प्रजातीर्थ लग्न उसे कहते हैं, जो नाल छेदन से पूर्व में होता है। क्योंकि नाल छेदनोपरान्त सूतक लग जाता है। अब इन्हीं कुछ दिन बीतने पर एक दिन विदुर आए बड़ा सम्मान पांडवों ने किया। रात्रि में विदुर धृतराष्ट्र के पास आए। ध्रतराष्ट्र को समझाया कबतक इनके दिए टुकड़ों में पलते रहोगे। अब तुम्हारा यहाँ कुछ बचा नहीं, चलो मेरे साथ भजन करोगे तो तुम्हारा स्वर्ग सुधरेगा।
इस प्रकार विदुर जी धृतराष्ट्र और गांधारी को लेकर रात्रि में ही वन की ओर निकल गए। प्रातः जब पांडवों को यह जानकारी हुई तो दुःखी हुए। इधर भगवान श्रीकृष्ण भी द्वारका जाने को तैयार हुए, युधिष्ठिर जी ने अर्जुन को भगवान के साथ भेज दिया। अर्जुन को गए अब पूरे सात महीने बीत गए। कोई समाचार कोई खबर नहीं मिल रही थी। तब एक समय इंद्रप्रस्त में भयानक अपसगुन होने लगे। युधिष्ठिर यह देख अकेले अँधेरे में बाहर आकर बैठे तभी अँधेरी झाड़ियों से एक काली परछाई उनके करीब चली आ रही थी।
वह परछाई आकर सीधे युधिष्ठिर के पैरों में आकर गिर पड़ी युधिष्ठिर जी ने उस व्यक्ति को उठाया और देखा तो वह अर्जुन थे अर्जुन को उदास देख कर युधिष्ठिर बोले- अर्जुन क्या बात है तुम्हे इतने दिन कैसे लगे द्वारिका में सब कुशल मंगल तो है न? अनुज! कृष्ण कैसे हैं? उनका परिवार कैसा है, वहां की प्रजा सुखी तो है न ? तुम कैसे हो? तुम उदास क्यूँ हो? क्या हुआ बताओ मुझे?
तब रोते हुए अर्जुन अपने आपको सम्हालते हुए बोले-
सोहं नृपेंद्र रहितः पुरुषोत्तमेन, सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन सून्य:।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमंग रक्षन, गोपैरसद्भिरबलेव विनिर्जीतोस्मि।।
दादा! जो मेरा तेज देवताओं को विश्मय कर देने वाला था, वह गोविंद के स्वधाम जाते ही संग चला गया। हम सब अब अनाथ हो गए। दादा! हम अनाथ हो गए! हम कन्हैया से रहित हो गए! भैया- जिन कन्हैया ने संकटों से हमारी बार-बार रक्षा की पग-पग में हमें राह दिखाया आज उस कन्हैया ने हमें छोड़ दिया।
यहां पर अर्जुन महाभारत में घटित एक एक दृश्य को याद कर विलाप कर रहे हैं। भैया आपको याद है, कि जब हमारी कुटिया में दुर्वासा जी आए थे, तब उनके शाप से हमें गोविंद ने बचाया था। उस अक्षय पात्र में से एक तिनके को निकाल कर के खाया। विश्वात्मा तर्पन्ताम कहकर जगत की आत्माओं को तृप्त कर दिया, और हमारे प्राणों की रक्षा करी।
जिस कन्हैया की कृपा से यक्षों का भेदन कर द्रोपती का वरण किया आज वह सब उन्हीं कन्हैया के साथ सारी शक्ति समाप्त हो गई। जिस गांडीव से महाभारत जैसे संग्राम को मैंने जीता आज वही गांडीव और वही अर्जुन उन भीलों से भी विजय प्राप्त नहीं कर सका। मैं भगवान की पत्नियों को द्वारिका अपने साथ ला रहा था, परंतु रास्ते में मुझे दुष्ट भीलो ने एक आवला की भांति हरा दिया। मैं उनकी रक्षा भी ना कर सका। भगवान के स्वधाम गमन और यदुवंश के संहार का वृतांत सुनकर युधिष्ठिर जी ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया। कुंती ने भगवान श्री कृष्ण के स्वधाम गमन की बात सुनकर अत्यंत भक्ति से अपने हृदय को भगवान श्री कृष्ण में लगा दिया और सदा के लिए जन्म मृत्यु रूपी संसार से मुंह मोड़ लिया।
इधर पांडवों ने ब्राह्मणों को बुलाकर परीक्षित का राजतिलक कराया और पांचों पांडव और द्रोपदी वन की ओर निकल गए। तीर्थों का दर्शन करते हुए वहीं से उन्होंने स्वर्गारोहण किया।
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