इस प्रकार कुछ दुन बीतने के बाद एक दिन कन्हैया ने देखा युधिष्ठिर जी एकान्त में मुह लटकाए हुए बैठे हैं। तो पास जाकर श्रीकृष्ण बोले- दादाजीः क्या बात है? आपका मुख मण्डल अशान्त और मुर्झाया हुआ क्यों है? आपको तो प्रसन्न होना चाहिए। युधिष्ठिर जी बोले- कन्हैया जब कभी मुझे मेरे पूर्वजों की याद आती है तो मुझे बडा क्लेश होता है। कि क्या मैं इतना मतलबी हूँ, इतना लोभी है मेरा मन, इसी राज पाठ, इसी सत्ता के लिए मैने अपने भाईयों का अपने नातेदारों का वध कर दिया, जिनकी गोद में हम बडे हुए हमने उन्हीं को मार दिया।
भगवान बोले- दादा आप उस घटना को याद मत करो वह सब अब भूल जाओ और आगे बढो, इस प्रकार शोक करोगे तो कब तक चलेगा। आपने अपना कर्म किया और मरने वालों ने अपना कर्तव्य पूरा कर स्वर्ग चले गये। सूत जी कहते है यहां पर भगवान वही गीता ग्यान युधिष्ठिर को भी सुनाया पर इनको समझ नहीं आया, क्योंकि यहाँ पर युधिष्ठिर ने भगवान अपने मामा जी का बेटा माना और अर्जुन ने भगवान को अपना गुरू माना था, इसलिए अर्जुन के सभी संकाओं का समाधान हो गया पर युधिष्ठिर जी का नहीं। सारी रात श्रीकृष्ण ने गीता का प्रवचन किया पर इन्हे कुछ समझ नहीं आया, हारकर भगवान ने सोचा यही उपदेश मैं युधिष्ठिर को पितामह भीष्म से दिलाता हुं तब सायद समझ में आये, और सुबह होते ही भगवान द्रोपदी के सहित पांडवों को लेकर पितामह भीष्म के पास पहुंचे।
पितामह मरणशय्या पर लेटे गोविन्द का ही चिन्तन कर रहे थे। कृमशः युधिष्ठिर आदि पाण्डवों ने उन्हें बडे ही विनम्रता और प्रेम से प्रणाम किया। भगवान पितामह के चरणों की ओर खडे हैं। जिससे पितामह को भगवान के दर्शन निरन्तर हो रहे हैं।
पितामह ने गोविन्द का दर्शन किया तभी उनके आंखों से अस्रुधारा गिर पडी मानों अपने आंशुओं से भगवान का पद प्रक्षालन कर रहे है, और फ़िर बोले-
इति मति रुप कल्पिता वितृष्णा
भगवती सात्वतपुंगवे विभूम्नि।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं
प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः॥
पितामह कहते है कृष्ण यह मेरी वाणी का इति शब्द है। जब कोई किसी शब्द की शुरुआत करता है तो अंत में इति शब्द का प्रयोग करता है, परन्तु यहां पर पितामह अपने शब्द का प्रारम्भ ही इति शब्द से करते हैं। दूसरी बात यह, कि प्रभू मै आपके दिव्य दर्शन प्राप्त करते हुए अपने प्राण त्यागूंगा न तो आज से इस जीव (प्राण) की भी इति हो जायेगी, अब यह आवागमन से मुक्त हो आपके धाम में निवास करेगा।
इसी प्रकार मेरे इस अन्तिम जीवन के कारण मेरी यह अन्तिम स्तुती भी है। इसलिए भीष्मजी ने अपनी स्तुती में पहला शब्द इति रखा है। पितामह भीष्म कहते हैं, माधव मेरे पास इति का बडा महत्व है। अबतक मेरी सारी कामनाएं पूर्ण हुई हैं पर एक इच्छा अभी अधूरी है। वो यह कि अपने रहते हुए अपनी बेटी का व्याह नहीं कर पाया। एक पिता को सबसे बडी चिन्ता तो पुत्री के विवाह की ही होती है। महराज मेरी बिटिया अब कुआंरी रह गई।
यह सुनने वाले सब चौंके..!
पितामह तो आजीवन ब्रम्हचारी हैं इनकी बेटी कहां से होगई।
पितामह बोले- माधव! जीवात्मा की पत्नी बुद्धि को माना जाता है, पर मैंने इसे अपनी बेटी माना है। ये जो मेरी (मति) बुद्धि है; यह मेरी बेटी है। मैंने अपनी बुद्धी रूपी पुत्री का विवाह किसी से नहीं किया। क्योंकि मुझे इस संसार में इसके योग्य कोई वर नहीं मिला। मैंने सोचा अपनी बेटी का विवाह किससे करूँ तो आज आपको देखकर लगता है मौक़ा बढियां है। क्यों न यह शरीर त्यागने से पहले इसका पाणिग्रहण आपसे करदूँ।
मेरी बेटी आपके ही योग्य है महाराज, क्योंकि मेरी बेटी में कोई दोष नहीं। यह सभी तृष्णाओं से रहित है। प्रभु मेरी मति बड़ी निर्मल है और निर्मल मति के पति तो आप ही हो सकते हैं। इसलिए मैं अपनी बुद्धी रूपी पुत्री को आप के श्री चरणों में समर्पित करता हूँ। आप मेरी बुद्धी को स्वीकार करें।
हे वासुदेव! मैं वो दृश्य अपने जीवन में कभी भुला न सकूंगा की जब आप मेरी प्रतिज्ञा को रखने के लिए अपनी प्रतिज्ञा को ही भूल गए।
वासुदेव गर चक्र न धरै
तुमको मुख न दिखाऊं।
लाजत है मेरी गंगा जननी
संतानु सुत न कहाऊं।।
यह तो आपको याद ही होगा, मेरी प्रतिज्ञा थी की आपके हाथों में शस्त्र धरा के ही छोडूंगा। और आपकी प्रतिज्ञा थी की इस युद्ध में मैं शस्त्र ग्रहण नहीं करूंगा। मैं जानता हूँ, भक्त और भगवान में जब जब झगड़ा हुआ तब तब भगवान् ने भक्त की ही विजय कराई।
एक बार माता यशोदा प्रतिज्ञा करती हैं कि कन्हैया आज मैं तोहे बाँध के रहूंगी। भगवान बोले मैया या संसार को मैं बांधै वारो, भला मोकुं कौन बांधैगो। भगवान में और माता में झगड़ा होता रहा अंत में अंगुली रस्सी कम पड़ती, पर अंत में विजय किसकी हुई, माता यशोदा की। कन्हैया को माँ के परिश्रम को देखकर अपने बंधन को स्वीकार करना ही पड़ा।
भीष्म कहते हैं- कन्हैया उसी प्रकार से अंततः आपने अपनी हार स्वीकार करी और मुझे विजय दिलाई। इसप्रकार बड़ी सुन्दर स्तुति पितामह ने करी अंत में भगवान के रास लीला में निमग्न हो गए। फिर पितामह ने पांडवों को धर्म के विषय में बताया। बोले- युधिष्ठिर! एक राजा का धर्म है कि प्रजा को सुखी रखे उनकी सेवा करे। समाज में बुराई को होते हुए न देखे। कोई व्यक्ति अगर पाप होते हुए देख रहा है और उसे वह रोकता नहीं तो उस पाप का भागीदार वह भी बनता है। इसलिए यह एक राजा का धर्म है कि पाप होते हुए न देखे अन्यथा वह भी पाप का भागीदार है। यदि पाप होते हैं तो रोकने का प्रयास करो और यदि रोकने का साहस नहीं तो उस स्थान का त्याग करदो।
पितामह इतना कह ही रहे थे की तभी द्रोपदी ने हंस दिया और फिर अपने को सम्हालती हुई शांत हो गई। यह देख पितामह ने द्रोपदी से हॅसने का कारण पूंछा। बोले- बेटी क्या हुआ? मैंने ऐसा क्या कहा जिस कारण तुम्हें हंसी आई। कुलीन स्त्रियां इस तरह से हंसा नहीं करती, मुझे बताओ तुम्हारे हंसने का कारण क्या था।
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