मैया ने कहा- लाला! गोविंद चरणों में प्रीति करने की जो भक्ति है, उसका स्वरूप क्या है? यहां पर कपिल जी बहुत सुंदर बात बता रहे है।
मैया! भक्ति का आरंभ होता है विश्वास से, गोविंद मेरी रक्षा करेंगे; ऐसा विश्वास करो। वह हर समय हमारे साथ में हैं। ।।विश्वासो फल दायका।।
विश्वास करना सीखो और भक्ति की मध्य धारा है माता संबंध।
बिना संबंध के भक्ति नहीं होती। जो संबंध तुम्हें प्रिय लगे वह रामजी से जोड़ो। एक बार संबंध जोड़ कर देखो और भक्ति का अंत होता है, माता! समर्पण से परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाओ।
जीवन में जो कुछ भी तुम करते हो, वह परमात्मा को समर्पित कर दो। संबंध, विश्वास और इसके साथ समर्पण।
“सम्बन्ध,विश्वास और समर्पण” यह भक्ति की 3 धाराएं हैं माता।
मां ने कहा- यह तो सुनने में अच्छा लगता है। संबंध जोड़ लिया, विश्वास हो गया, समर्पित हो गए। पर यह जीवन में कैसे उतरे।
बोले- कीर्तन करने से, चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते हर समय भगवान का कीर्तन करो।
यह ज्ञान का जो मार्ग है ना माता, यह है बंदर के बच्चे के समान और भक्ति का जो मार्ग है, बिल्ली के बच्चे की तरह।
बंदर देखा है आपने, हमारे वृंदावन में के राजा हैं। वृंदावन का साम्राज्य उनके हाथ में रहता है। तो कभी आपने देखा हो कि बंदरिया जब एक छत से दूसरे छत में छलांग लगाती है। तब वह अपने बच्चे को स्वयं नहीं पकड़ती। बंदरिया का बच्चा ही मां के पेट को कस के पकड़ता है।
उसका हाथ बीच में छूट गया, नीचे गिर गया, खोपड़ी फूट गई। मां का कोई दोष नहीं। ज्ञान का मार्ग बस ऐसा ही है। इस मार्ग में स्वावलंबन जरूरी है। इंद्रियों पर संयम, मन में नियंत्रण, जरा सा फिसले कि गए काम से।
लेकिन भक्ति का जो मार्ग है माता! वह है बिल्ली के बच्चे की तरह, आपने देखा हो घरों में बिल्लियां रहती हैं। तो बिल्ली अपने बच्चे को कभी कष्ट नहीं होने देती। बच्चा जन्म लेता है, शांत पड़ा रहता है। जिन दांतों से चूहे को चीड़के खा जाती है, उन्हीं दांतों से अपने बच्चे का गर्दन पकड़ कर उठाती है। बच्चा शांत रहता है, कुछ नहीं बोलता, जानता है जहां मेरा हित होगा, मां मुझे वहां ले जाएगी। मुझे क्या चिंता!
तो भक्ति का जो मार्ग है माता उसमें प्रभु के प्रति समर्पण भाव ही उत्तम है। मुझे नर्क में जाने से तुम्हें प्रसन्नता है गोविंद तो मेरे लिए नर्क ही मुक्ति है। मेरे रोने से यदि तुम्हें मुस्कुराना है तो मैं जी भर कर रहूंगा। ताकि तुम मुस्कुराते रहो,
मेरे रोने से तुमको जो आए हंसी,
तो रो रो के तुमको हंसाया करूं।।
यही मुक्ति का सिद्धांत है। सुख की कामना तो मन में है ही नहीं। बस नाम जप करना चाहिए। खूब नाम जपो और कीर्तन करो। इससे माता धीरे-धीरे प्रभु में मन लग जाता है।
अब तो माता के हृदय में अंतर भाव उत्पन्न होने लगे माता कीर्तन करने लगी।
अहो वत श्वपचोतो गरीयान
यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम्।
तेपुस्तपास्ते जुहुव: सस्नु रार्या
ब्रह्मानुचुर्नाम गृणन्ति ये ते।। 7|33|3
मैया कहती है- की सबसे बड़ा भाग्य उसीका है, जिसने तुम्हारे नाम को जप लिया। तुम्हारे नाम का गान कर लिया। उसी ने तपस्या कर ली, उसी ने यज्ञ कर लिया, जिसने तेरे नाम का गान कर लिया।
अब तो माता बस प्रभु के नाम का उच्चारण करने लगी, नाम गान करते-करते माता के नेत्रों से आंसू निकल पड़े। मन गदगद हो गया, शरीर पुलकित हो गया। मूर्छा खा कर गिर पड़ी और प्रेम की दसवीं अवस्था को व्यक्ति जब पार करता है तो शरीर पानी बन जाता है। पूरा शरीर ही पानी बन गया। वही जल सिद्धिदा नाम की नदी बन गई।
फिर-
कपिलोपि महायोगी भगवान पितुराश्रमात।
मातरं समनुज्ञाप्य प्रागुदीचीं दिशं ययौ।।
भगवान कपिल ने उस जल को मस्तिष्क से लगाया। मां को प्रणाम किया और सीधे गंगा सागर क्षेत्र में चले गए।
भजन
जिस देश में जिस वेश में परिवेश में रहो
राधा रमण राधा रमण राधा रमण कहो।
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