"मुच्यतां मुच्यता मेस" गुरुपुत्र जोकी वन्दनीय है। उनकी यह दशा किसने की पाण्डव श्रेष्ठ इनके चरण में तो वन्दन करना चाहिए। इन्हें बन्धन मुक्त करदो मुच्यतां एक बार नहीं दो बार कहा द्रोपती ने मतलब यह हुआ की यह मेरा पक्का निर्णय है की उसे छोड़ दिया जाए चाहे उसने कुछ भी किया हो। अर्जुन ने बताया द्रोपद सुता आप जिसे मुक्त करना चाहतीं हैं वह आपके पुत्रों का हत्यारा है। कहो द्रोपती कहो अब तुम्हारा क्या निर्णय है।
कहा द्रोपदी ने- हां उसने चाहे कुछ भि किया हो, क्या गुरु पुत्र को मारने से हमारे पांचो पुत्र जीवित हो जाएंगे। पाण्डव श्रेष्ठ- जगत की एक मां पुत्र शोक में रो रही है। आप उसको यदि शान्त न कर सको कोई बात नहीं लेकिन इसको मारोगे तो इसकी मां भी रोयेगी। वह मां जो अभी अभी पती शोक से आहत है, कमसे कम उस मां को पुत्र शोक से बचालो मेरी तरह उस दूसरी मां को न रोना पड़े। कुल श्रेष्ठ मैं भी एक मां हूँ, मैं जानती हूँ की पुत्र शोक का दुख क्या होता है, आप क्या समझो एक मां की वेदना।
कहते हैं पिता ही पुत्र के रूपमें जन्म लेता है, इसीलिए उसे आत्मज भी कहते हैं। इसीलिए इन्हें भी गुरु समझो, इनको वन्दन करो। यह सुन अर्जुन ने भी सोचा की हमारे ऊपर गुरू के उपकार अनन्त हैं, गुरूजी ने जो अपने पुत्र को नहीं दिया, वह मुझे दिया है। अर्जुन ऐसा सोच ही रहे थे की तभी वहाँ उपस्थित भीम ललकारते हुए बोले- अर्जुन तुम इसका बध करते हो या मैं करूँ।
जिस आतताई ने सोते हुए बच्चों का बध करदिया उसे मारने में इतना विचार क्यूँ ? भीम की रोषपूर्ण बातों को सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा- कन्हैया हमतो यहां बड़े उलझे हुए हैं, अब आप ही कुछ निर्णय करो की इस दुराचारी का क्या किया जाए।
भगवान श्रीकृष्ण बोले- अर्जुन! देखो यदि तुम मुझे निर्णायक मान रहे हो तो जो निर्णय मैं दूंगा, तुम्हे वही करना पड़ेगा, सोचलो।
सबने एक स्वर में कहा ठीक है कन्हैया जो तुम कहोगे वही होगा। तबभगवान ने अपना निर्णय सुनाया। ध्यान दीजिये क्या निर्णय सुनाया।
हमारे कन्हैया का नाम टेढा, कन्हैया की चाल टेढी, इनका हर काम टेढा अब इनके खड़े होने का तरीका ही देखलो। इसीलिए इन्हें त्रिभंगी कहते हैं।और इनकी वाणी तो यही जानें जो कहते हैं उस मतलब भी विपरीत ही होता है। इन्हें तो ब्रह्मा भी न जान पाये हम जीवों की बात ही छोड़ो।
भगवान ने बड़ी टेढी बात कही क्या?
बपनं द्रविणा दानं, स्थानान्निर्यापणं तथा।
एष हि ब्रह्मबन्धूनां, बधो नान्योऽस्ति दैहिकः॥
अर्जुन! ब्राह्मण कितना भी अधम क्यों न हो उसे कभी मारना नहीं चाहिए। और अश्वत्थामा ब्राह्मण है उसमे भी तुम्हारे गुरू का पुत्र है।
इसलिए इसका बध बिल्कुल मत करो। परन्तु! अर्जुन तुम एक क्षत्रीय हो इसलिए सोते हुए निरपराधी बच्चों को मारने वाले दुष्ट आतताई को छोड़ना नहीं चाहिए, चाहे वह ब्राह्मण ही क्यों न हो।
अर्जुन बोले वाह महराज तब तो होगया निर्णय। एक ओर कहते हो ब्राह्मण की हत्या नहीं करनी चाहिये वह चाहे कितना भी अधम क्यों नहो और दूसरी ओर यह भी कहते हो की आतताई को छोड़ना नहीं चाहिये चाहे वह ब्राह्मण ही क्यों न हो। ऐसा कैसे हो सकता है?
भगवान बोले- हाँ अर्जुन तुम एक क्षत्रीय हो, याद करो तुमने द्रोपती के सामने बच्चों के हत्यारों का बध करने का संकल्प किया है। युधिष्ठिर जी आपके बड़े भाई हैं। इसलिए वो जो कह रहे हैं उसका पालन करना तुम्हारा धर्म है। और क्षत्रीय होने के नाते तुमने जो प्रतिज्ञा की, जो संकल्प लिया उसे पूरा करना भी तुम्हारा धर्म है।
यह सुन अर्जुन तो और उलझ गये! अच्छा भगवान ने यह उलझन भरी बात क्यों की ? सच्चाई तो यह है की कन्हैया अर्जुन की परीक्षा लेना चाहते हैं। अर्जुन ने श्री कृष्ण को गुरू माना है, तो क्या एक गुरू अपने शिष्य की परीक्षा नहीं ले सकता ?
भगवान ने सोचा हमने गीता का उपदेश तो दे दिया पर इस धर्म युद्ध के मार काट में कुछ याद भी है की सब भूल गये। गुरू जी जब शिक्षा देते हैं, तो परीक्षा भी लेते हैं। और वह परीक्षा गुरू कभी भी कहीं भी ले सकता है, यही नियम है।
इसलिए भगवान यहां पर युद्ध के समापन में मानो अर्जुन की परीक्षा ले रहे हों। बताओ अर्जुन अब तुम क्या करोगे.. मारोगे या छोड़ोगे? अपने बड़े भाई की आज्ञा का पालन भी करो और अपनी प्रतिज्ञा भी पूरी करो।
तब अर्जुन को भगवान की वाणी याद आयी..
बपनं द्रविणा दानं, स्थानान्निर्यापणं तथा।
एष हि ब्रह्मबन्धूनां, बधो नान्योऽस्ति दैहिकः॥
प्रतिष्ठित व्यक्ती का अपमान ही उसकी मृत्यु है। क्योकि मरना तो सबको है, पर पूरे समाज में यदि प्रतिष्ठित व्यक्ती का घोर अपमान कर दिया जाय तो उस अपमान को याद कर वह जिन्दगी में न जाने कितनी बार मरता है। जब जब उसे अपने अपमान की बात का स्मरण होता है, तब तब उसे मरण तुल्य पीड़ा होती है। मृत्यु से भी भयानक कष्ट अपमान का प्रतिष्ठित व्यक्ती को प्राप्त होता है। अर्जुन को यही मृत्यु समझ में आई, तुरत अश्वत्थामा के मस्तक में देवत्वमान मणी थी उसे निकाल लिया और मुण्डन कर शिविर से धक्का देकर निकाल दिया। यही अश्वत्थामा की मृत्यु कहलाई और शरीर का बध भी नहीं हुआ। यह देख भगवान प्रसन्न हुए। राजोचित उन बच्चों की अन्तिम बिदाई की गई।
एक दिन भगवान ने युधिष्ठिर जी से बोले- दादा अब यह युद्ध समाप्त हो गया है। आपका राज तिलक भी हो गया मुझे अब चलना चाहिए, द्वारिका की प्रजा मेरी प्रतीक्षा में है। युधिष्ठिर जी बोले कन्हैया तुम्हे बिदा करने का मन तो नहीं करता। पर इतने दिनों से तुम हमारे साथ हो और द्वारिका वासी भी आपकी प्रतीक्षा में हैं। इसलिए न चाहकर भी आज नहीं तो कल आपको जाना ही होगा। इसलिए चलिए हम कल आपको बिदा करते हैं।
दूसरे दिन जब भगवान श्रीकृष्ण की बिदाई होने लगी, गाजे बाजे बजने लगे, माताएं मंगल गीत गाने लगीं। विप्रजन भद्रसूक्त का पाठ करने लगे। रथ तैयार हैं, सब भगवान की बिदाई कर रहे हैं। कन्हैया को मालाएं पहनाई जा रही हैं , पुष्पों की वृष्टी की जा रही है। चारो ओर से एक ही आवाज आरही है बोलो द्वारिकानाथ की.. जय ।
यहां पर भगवान की अद्भुत झांकी है दर्शन करें। रथ में विराजमान होने को उद्यत हैं। भगवान ने बायां चरण रथ के ऊपर रख लिया है, बाई भुजा से रथ की ध्वजा को पकड़ लिया है। इन्द्रप्रस्थ वासी जब भगवान को प्रणाम करने लगे तो दाये हाथ से अभय मुद्रा में आशिर्वाद दे रहे हैं। अद्भुत झांकी श्रीकृष्ण की एक चरण भूमि पर दूसरा चरण रथ पर, एक भुजा से ध्वजा पकड़े हुए हैं और दूसरी भुजा से अभय मुद्रा में सब को आशिर्वाद दे रहे हैं।
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